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5 बातें जो इतिहास के बारे में आपकी सोच बदल देंगी

अनोखी बात - प्राचीन भारत में शुतुरमुर्ग

5 बातें जो इतिहास के बारे में आपकी सोच बदल देंगी

5 Things That Will Change How You See History

क्या आपने कभी सोचा है कि “कोई यह कैसे जान सकता है कि इतने वर्षों पहले क्या हुआ था?” यह एक साधारण सा सवाल है, लेकिन इसका जवाब किसी रहस्य को सुलझाने से कम नहीं। ज़्यादातर लोग इतिहास को सिर्फ़ तारीखों, युद्धों और राजा-महाराजाओं की कहानियों का संग्रह मानते हैं। लेकिन असल में, इतिहास को जानना एक जासूसी का काम है, जहाँ हम छोटे-छोटे सुरागों को जोड़कर अतीत की एक धुँधली तस्वीर में रंग भरने की कोशिश करते हैं।
 
यह लेख इतिहास के बारे में ऐसे ही पाँच आश्चर्यजनक विचारों को उजागर करेगा, जो आपको यह समझने में मदद करेंगे कि अतीत को जानना कितना रोमांचक और जटिल काम है।

1. हमारे देश के दो नाम :- इंडिया और भारत की अलग-अलग कहानियाँ...

देश के दो नाम - इंडिया और भारत
देश के दो नाम - इंडिया और भारत
हम अपने देश के लिए ‘इंडिया’ और ‘भारत’ जैसे नामों का प्रयोग करते हैं, लेकिन क्या आप जानते हैं कि ये दोनों नाम दो बिलकुल अलग-अलग ऐतिहासिक स्रोतों से आए हैं?
‘इंडिया’ शब्द ‘इंडस’ से निकला है, जिसे संस्कृत में ‘सिंधु’ कहा जाता है। लगभग 2500 वर्ष पहले, उत्तर-पश्चिम से आए ईरानियों और यूनानियों ने सिंधु नदी को ‘हिंदोस’ या ‘इंदोस’ कहा और इस नदी के पूर्व में स्थित भूमि प्रदेश को ‘इंडिया’ नाम दिया।
दूसरी ओर, ‘भारत’ नाम का प्रयोग उत्तर-पश्चिम में रहने वाले लोगों के एक समूह के लिए किया जाता था। इस समूह का उल्लेख लगभग 3500 वर्ष पुराने ऋग्वेद में भी मिलता है, जो संस्कृत की सबसे आरंभिक कृतियों में से एक है। बाद में, इसी नाम का प्रयोग पूरे देश के लिए होने लगा।
यह कितना दिलचस्प है कि हमारे दो मुख्य नाम दो अलग-अलग दृष्टिकोणों को दर्शाते हैं। एक नाम, ‘इंडिया’, बाहरी दुनिया द्वारा एक महान नदी के आधार पर दिया गया भौगोलिक परिचय है। वहीं दूसरा नाम, ‘भारत’, लोगों के एक समूह की सांस्कृतिक पहचान से उपजा है, जिसका ज़िक्र हमारे सबसे प्राचीन ग्रंथों में मिलता है।

2. इतिहासकार असल में जासूस होते हैं...

इतिहासकार असल में जासूस
इतिहासकार असल में जासूस
अतीत को समझने के लिए इतिहासकार और पुरातत्त्वविद् ठीक वैसे ही काम करते हैं जैसे कोई जासूस किसी रहस्य को सुलझाने के लिए करता है। वे सबूत इकट्ठा करते हैं, उनकी जाँच करते हैं और फिर एक कहानी बुनते हैं। इतिहासकारों के लिए इन सबूतों या सुरागों को “स्रोत” (source) कहा जाता है। ये स्रोत कई तरह के हो सकते हैं, लेकिन तीन मुख्य प्रकार हैं :-

• पाण्डुलिपियाँ :- ये हाथ से लिखी गई पुरानी पुस्तकें होती हैं। इन्हें आमतौर पर ताड़ के पत्तों (ताड़पत्रों) या हिमालय में उगने वाले भूर्ज पेड़ की छाल से बने विशेष भोजपत्र पर लिखा जाता था।

• अभिलेख :- ये लेख पत्थर या धातु जैसी कठोर सतहों पर उकेरे जाते थे। अक्सर राजा-महाराजा अपने आदेशों या अपनी विजयों को इन पर खुदवाते थे ताकि वे लंबे समय तक सुरक्षित रहें।

• पुरातत्त्व :- इसमें विशेषज्ञ ज़मीन के नीचे दबे सुरागों को खोजते हैं। पुरातत्त्वविद् एक टूटे हुए मिट्टी के बर्तन के टुकड़े, एक पुराने सिक्के, या किसी इमारत की नींव से एक पूरे युग की जीवनशैली का पुनर्निर्माण करते हैं।

इन सभी स्रोतों का इस्तेमाल करके ही विशेषज्ञ अतीत का पुनर्निर्माण करते हैं। जैसा कि कहा गया है :-
इतिहासकार तथा पुरातत्त्वविद् उन जासूसों की तरह हैं जो इन सभी स्रोतों का प्रयोग सुराग के रूप में कर अतीत को जानने का प्रयास करते हैं।

3. अतीत सिर्फ़ एक नहीं, अनेक हैं...

अतीत एक नहीं, अनेक
अतीत एक नहीं, अनेक
जब हम ‘इतिहास’ की बात करते हैं, तो हम अक्सर एक ही कहानी की कल्पना करते हैं। लेकिन सच्चाई यह है कि अतीत एक नहीं, बल्कि अनेक हैं। 
अलग-अलग सामाजिक समूहों के लिए अतीत के मायने अलग-अलग थे। एक राजा या रानी का जीवन एक किसान या शिल्पकार के जीवन से बहुत भिन्न था। इस विचार को समझने के लिए आज का ही उदाहरण लीजिए। आज अंडमान द्वीप के अधिकांश लोग अपना भोजन मछलियाँ पकड़ कर, शिकार करके तथा फल-फूल के संग्रह द्वारा प्राप्त करते हैं। इसके विपरीत शहरों में रहने वाले लोग खाद्य आपूर्ति के लिए दूसरों पर निर्भर करते हैं। इस तरह के भेद अतीत में भी मौजूद थे।
शासक अपनी विजयों और अपने जीवन का लेखा-जोखा अभिलेखों में रखते थे, इसलिए हम उनके बारे में काफ़ी कुछ जानते हैं। इसके विपरीत, शिकारी, मछुआरे, किसान और मज़दूर जैसे आम लोग अपने कामों का रिकॉर्ड नहीं रखते थे। यह हमें याद दिलाता है कि इतिहास की हमारी समझ हमेशा अधूरी होती है और इसमें आम लोगों की कहानियाँ अक्सर अनकही रह जाती हैं।

4. काग़ज़ से पहले, किताबें छाल और पत्तों पर लिखी जाती थीं...

छाल और पत्तों पर लिखी किताबें
छाल और पत्तों पर लिखी किताबें
आज हम काग़ज़ पर छपी किताबों के आदी हैं, लेकिन हज़ारों साल पहले पुस्तकें हाथ से लिखी जाती थीं और इन्हें ‘पाण्डुलिपि’ (manuscript) कहते थे। ‘मैन्यूस्क्रिप्ट’ शब्द लैटिन भाषा के शब्द ‘मेनु’ से बना है, जिसका अर्थ ‘हाथ’ होता है। यह इस बात पर ज़ोर देता है कि ये पूरी तरह हस्तलिखित होती थीं।
ये किताबें ताड़ के पत्तों को एक ख़ास आकार में काटकर या हिमालय क्षेत्र में मिलने वाले भूर्ज नामक पेड़ की छाल से तैयार किए गए ‘भोजपत्र’ पर लिखी जाती थीं। कल्पना कीजिए, उन हाथों की जिन्होंने हज़ारों साल पहले इन पत्तों पर ज्ञान उकेरा, यह जानते हुए कि वे आने वाली पीढ़ियों के लिए एक खज़ाना छोड़ रहे हैं। इन पाण्डुलिपियों में धार्मिक मान्यताओं से लेकर राजाओं के जीवन, औषधियों, विज्ञान, महाकाव्य और कविताओं जैसे कई विषयों पर लिखा जाता था। समय के साथ इनमें से कई पाण्डुलिपियों को कीड़े खा गए या वे नष्ट हो गईं, लेकिन जो आज भी मंदिरों और विहारों में सुरक्षित हैं, वे हमारे लिए अतीत का अमूल्य खज़ाना हैं।

5. खेती की शुरुआत गंगा के मैदानों में नहीं हुई थी...

खेती की शुरुआत कहा हुई थी ?
खेती की शुरुआत कहा हुई थी ?
जब हम प्राचीन भारतीय सभ्यता के बारे में सोचते हैं, तो गंगा के विशाल मैदानों की तस्वीर उभरती है। लेकिन क्या हो अगर मैं कहूँ कि कहानी की शुरुआत वहाँ से मीलों दूर, ऊबड़-खाबड़ पहाड़ियों में हुई थी?
पुरातात्त्विक साक्ष्य एक आश्चर्यजनक कहानी बताते हैं। इस उपमहाद्वीप में सबसे पहले खेती की शुरुआत लगभग 8000 वर्ष पूर्व उत्तर-पश्चिम में स्थित सुलेमान और किरथर पहाड़ियों के क्षेत्र में हुई थी। यहीं पर स्त्री-पुरुषों ने सबसे पहले गेहूँ और जौ जैसी फ़सलों को उपजाना शुरू किया और साथ ही भेड़, बकरी और गाय-बैल जैसे पशुओं को पालतू बनाना सीखा। ये लोग गाँवों में रहते थे।
इसकी तुलना में, गंगा घाटी के किनारे नगरों का विकास बहुत बाद में, लगभग 2500 वर्ष पूर्व हुआ। यह तथ्य दिखाता है कि कैसे पुरातत्त्व हमें मानव बस्तियों और सभ्यता के विकास के बारे में स्थापित धारणाओं को फिर से जाँचने और एक ज़्यादा सटीक तस्वीर बनाने में मदद करता है।

अंत में जानते हैं ?

अतीत सिर्फ़ सूखी तारीखों का ढेर नहीं, बल्कि रहस्यों, आश्चर्यों और अनगिनत अनकही कहानियों का भंडार है। हमारे देश के नाम उसकी दोहरी पहचान की कहानी कहते हैं।  इतिहासकारों का काम किसी जासूसी से कम नहीं, हर व्यक्ति का अतीत दूसरे से अलग था।  ज्ञान को पत्तों और छाल पर सहेजा गया और सभ्यता की पहली फसलें उन पहाड़ियों में उगीं जिनके बारे में हम कम ही सोचते हैं। ये सभी बातें हमें याद दिलाती हैं कि अतीत को समझना उसकी परतों को धीरे-धीरे खोलने जैसा है, जहाँ हर परत एक नया रहस्य उजागर करती है।
अब ज़रा सोचिए, आज के हमारे डिजिटल युग की कौन-सी कहानियाँ और रिकॉर्ड हज़ारों साल बाद भविष्य के इतिहासकारों तक पहुँचेंगे और कौन-से हमेशा के लिए खो जाएँगे?
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